“जो पार्टी कभी देश की पहचान थी, वह आज खुद को पहचानने की जद्दोजहद में है।”
अश्विनी कुमार दुबे। राष्ट्रीय स्वाभिमान
नई दिल्ली। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress – INC), देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी, आज गहरे आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है। वह पार्टी जिसने स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया, संविधान निर्माण में अहम भूमिका निभाई और आज़ादी के बाद दशकों तक सत्ता में रही — आज उसे देश की राजनीति में खुद के लिए जगह बनाने में संघर्ष करना पड़ रहा है।”यह केवल एक पार्टी नहीं, यह तो उस सपने का नाम है जिसने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की हिम्मत की थी…”जब हम कांग्रेस का नाम लेते हैं, तो केवल एक राजनीतिक दल की छवि आंखों में नहीं उभरती है, वो स्वतंत्रता की पहली चीख, वो चर्खा, वो नमक सत्याग्रह, और वो तिरंगे की पहली लहराती हुई लकीर। कांग्रेस कोई दफ्तरों में बंद बैठा संगठन नहीं था; वह तो गाँव-गाँव, दिल-दिल में फैला एक आंदोलन था — एक जुनून, एक सपना, एक विचार।
सत्ता की शिखर से नीचे तक
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी और यह जल्दी ही देश की आज़ादी की लड़ाई की धुरी बन गई। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने कांग्रेस को केवल एक राजनीतिक संगठन नहीं, बल्कि एक जनआंदोलन बना दिया।

आज़ादी के बाद, 1952 से लेकर 1989 तक, कांग्रेस ने अधिकांश समय केंद्र में सत्ता संभाली। यह पार्टी न केवल सरकार थी, बल्कि शासन की परिभाषा थी। इंदिरा गांधी की ताकतवर नेतृत्व शैली, राजीव गांधी की तकनीकी दृष्टि और नरसिम्हा राव के आर्थिक सुधार आज भी याद किए जाते हैं। लेकिन 1990 के दशक के बाद कांग्रेस का राजनीतिक प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगा। मंडल-कमंडल राजनीति, क्षेत्रीय दलों का उदय और अंततः भारतीय जनता पार्टी (BJP) का उभार कांग्रेस के लिए चुनौती बनते गए।
वर्तमान संकट: नेतृत्व, रणनीति और संगठन की त्रासदी
नेतृत्व की अस्पष्टता
कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या उसका नेतृत्व बन चुका है। राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ा, फिर भारत जोड़ो यात्रा निकाली, लेकिन उनके राजनीतिक दृष्टिकोण में स्थिरता का अभाव रहा है। कांग्रेस कार्यकर्ता अभी भी असमंजस में हैं कि पार्टी का असली नेता कौन है — सोनिया गांधी, राहुल गांधी या फिर सिर्फ एक अंतरिम व्यवस्था?
संगठन की जड़ता
कांग्रेस पार्टी में लंबे समय से कोई गंभीर संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए। जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता असंगठित हैं, बूथ स्तर पर मौजूदगी कमजोर हो गई है, और नेताओं के बीच गुटबाजी आम हो चुकी है। कई राज्यों में पार्टी के पास कोई मज़बूत चेहरा ही नहीं है।
राजनीतिक रणनीति का अभाव
बीजेपी जहां आक्रामक प्रचार, सोशल मीडिया और जातीय समीकरणों का खुलकर इस्तेमाल करती है, वहीं कांग्रेस अब भी पारंपरिक राजनीति में उलझी हुई दिखाई देती है। चुनावी घोषणापत्र तो आते हैं, लेकिन उन्हें जनता तक ले जाने का तंत्र विफल है।
राज्यों में स्थिति: कुछ उम्मीदें, पर ज़्यादा निराशा
कई राज्यों में कांग्रेस को सत्ता में आने का अवसर मिला, जैसे राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश। लेकिन इन राज्यों में भी गुटबाजी और नेतृत्व संघर्ष ने पार्टी की छवि को धूमिल किया है। पंजाब में आम आदमी पार्टी का उदय और मध्य प्रदेश में सिंधिया जैसे नेताओं के बाहर जाने से नुकसान हुआ।
कुछ सकारात्मक बातें भी हैं — छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने लोकप्रियता हासिल की है। लेकिन ये अपवाद हैं, नियम नहीं।
क्षेत्रीय दलों की मार और गठबंधन की राजनीति
एक समय था जब कांग्रेस देशभर में सर्वव्यापी थी। लेकिन आज उसके पारंपरिक वोट बैंक पर क्षेत्रीय दलों का कब्जा हो चुका है। यूपी में समाजवादी पार्टी और बसपा, बिहार में राजद-नीतीश, बंगाल में तृणमूल, दक्षिण में डीएमके और टीआरएस जैसे दल कांग्रेस के विकल्प बन चुके हैं।
गठबंधन की राजनीति में कांग्रेस अब “बड़ा भाई” नहीं रही। विपक्षी एकता की बात होती है तो कांग्रेस को बराबरी का दर्जा देना बाकी दलों को मुश्किल लगता है। ‘INDIA’ गठबंधन एक पहल थी, लेकिन उसमें भी आपसी समन्वय की कमी दिखी।
भारत जोड़ो यात्रा: एक नई उम्मीद?
2022 में राहुल गांधी द्वारा शुरू की गई भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में एक नई ऊर्जा फूंकी। यह यात्रा सामाजिक मुद्दों, आर्थिक असमानता और सांप्रदायिकता के खिलाफ एक संदेश लेकर चली। कई जगहों पर इसे जनता का समर्थन भी मिला। लेकिन यह यात्रा एक आंदोलन के रूप में थी, न कि चुनावी हथियार।
जब तक इस ऊर्जा को चुनावी रणनीति और संगठनात्मक बदलाव में नहीं बदला जाएगा, तब तक सिर्फ यात्राओं से बदलाव संभव नहीं।
क्या पुनरुत्थान संभव है?
बिलकुल, लेकिन इसके लिए कांग्रेस को नीचे दिए गए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे:
नया और स्पष्ट नेतृत्व:
कांग्रेस को तय करना होगा कि नेतृत्व किसके हाथ में होगा, और वह व्यक्ति न केवल पार्टी के भीतर, बल्कि जनता के बीच भी विश्वसनीय और प्रभावशाली हो।
संगठन का पुनर्गठन:
जमीनी कार्यकर्ताओं को फिर से जोड़ने, बूथ स्तर पर मज़बूती और युवा नेतृत्व को बढ़ावा देना जरूरी है।
स्पष्ट वैकल्पिक एजेंडा:
सिर्फ बीजेपी का विरोध करने से कुछ नहीं होगा। कांग्रेस को एक ठोस नीति, विज़न और योजनाओं के साथ सामने आना होगा — शिक्षा, रोजगार, महंगाई, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर।
डिजिटल युग की राजनीति:
सोशल मीडिया, डिजिटल कैंपेन, डेटा एनालिटिक्स जैसे आधुनिक चुनावी टूल्स को अपनाना होगा। 21वीं सदी की राजनीति 20वीं सदी के तरीकों से नहीं जीती जा सकती।
गांधी का सत्य, नेहरू का स्वप्न
कांग्रेस की आत्मा को समझने के लिए इतिहास की किताबें नहीं, देश के ज़ख्मों को पढ़ना होता है।
गांधी जी जब चंपारण के खेतों में पहुंचे, तो उनके साथ एक पूरी सोच आई — सत्याग्रह की।
नेहरू जब लाल किले से बोले, तो केवल भाषण नहीं दिया, आज़ाद भारत की आत्मा को स्वर दिया।
आज भी जब हम ‘भारत’ कहते हैं, उसमें कांग्रेस का सपना गूंजता है।
संघर्षों की वो गाथा जो मिट नहीं सकती
कांग्रेस ने सिर्फ सत्ता में रहना नहीं सीखा — इसने जेलों की दीवारें देखीं, गोली खाई, जूते घिसे, और फिर भी मुस्कराते हुए कहा “देश सबसे पहले है।” आज भले ही टीवी डिबेट में कांग्रेस को ‘खत्म होती पार्टी’ कहा जाए, लेकिन सच यह है कि जो पार्टी 130 करोड़ लोगों की भावनाओं से कभी जुड़ी थी.
वह एक चुनाव में हारी हुई हो सकती है — पर मिट नहीं सकती
आज की हालत: धुंधला होता आदर्श, लेकिन बुझा हुआ दीप नहीं है। आज कांग्रेस एक आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है।
कभी-कभी लगता है कि पार्टी अपने ही बनाए उस आईने को पहचान नहीं पा रही, जिसमें खुद का अक्स सबसे सुंदर था।
नेतृत्व असमंजस में है, कार्यकर्ता हतोत्साहित हैं, और जनता का भरोसा डगमगाया है। मगर जब-जब इस पार्टी ने खुद को भीतर से झांका है, तब-तब नए सवेरे ने दस्तक दी है।
भारत जोड़ो यात्रा: एक कविता, एक पुकार
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ केवल एक राजनीतिक आयोजन नहीं थी — वह तो दिल से दिल को जोड़ने की कवायद थी।
वो पाँव जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक चले, वो सड़कें जिन्होंने देश की धड़कनों को महसूस किया — वहां केवल नारे नहीं लगे, वहां लोगों की कहानियाँ सुनी गईं।

क्या यही वह राह है जिससे कांग्रेस फिर अपने मूल विचार — “सेवा, समर्पण और समभाव” की ओर लौट सकती है?
कांग्रेस: एक बीज जो हर पीढ़ी में उगता है
भले ही आज यह बीज धूप से झुलसा हो,
भले ही इस पर शक के बादल हों,
मगर यह बीज मिट्टी में गहराई से गड़ा हुआ है।
हर वो युवा जो संविधान पढ़ता है,
हर वो बच्चा जो “आजादी” शब्द बोलता है,
हर वो औरत जो अपने अधिकारों के लिए लड़ती है —
वो कांग्रेस की ही कहानियों का कोई ना कोई अध्याय है।
निष्कर्ष: कांग्रेस एक पार्टी नहीं, एक प्रतीक है
इस दौर में जब राजनीति केवल सत्ता की कुर्सी बन गई है,
कांग्रेस अब भी उस आदर्श की तलाश में है,
जहां राजनीति का मतलब था — “जनसेवा”,
ना कि “जनमत प्रबंधन”।
कांग्रेस को फिर से सिर्फ वोट पाने वाली पार्टी नहीं, विचार रचने वाली संस्था बनना होगा। यह काम सिर्फ जमीनी स्तर से लेकर ऊपर तक के संगठन को करना होगा बिना किसी भेद-भाव और गुटबाजी के।
