पटना। राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) के नेता उपेंद्र कुशवाहा इन दिनों अपने राजनीतिक अस्तित्व और ताकत का अहसास कराने के लिए लगातार शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं। कभी मानव श्रृंखला तो कभी बड़ी रैलियों के जरिए, वह अपने समर्थकों को संदेश देने और विपक्षियों पर दबाव बनाने में जुटे हैं। इसी कड़ी में 5 सितंबर को पटना में आयोजित रैली ने राजनीतिक गलियारों का ध्यान खींचा। इस रैली का समय और मकसद दोनों ही काफी अहम माने जा रहे हैं।
यह संयोग नहीं है कि कुशवाहा ने शिक्षक दिवस पर रैली की, बल्कि उनके लिए यह तारीख इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि यह बिहार के लेनिन कहे जाने वाले शहीद जगदेव प्रसाद का शहादत दिवस है। जगदेव प्रसाद कुशवाहा समाज के बड़े नेता रहे हैं और उनकी याद में पहले भी कई रैलियां होती रही हैं। ऐसे मौके का चुनाव कर उपेंद्र कुशवाहा ने अपने समाज और समर्थकों को साधने का प्रयास किया है।
इस रैली का मुख्य मुद्दा परिसीमन रहा। कुशवाहा लंबे समय से यह कहते आ रहे हैं कि बिहार में 50 साल से परिसीमन नहीं हुआ, जबकि अगर समय पर यह प्रक्रिया पूरी होती तो राज्य की लोकसभा सीटें 40 नहीं बल्कि 60 होतीं। इसी मुद्दे को लेकर वह लगातार रैलियां कर रहे हैं और लोगों को अपने पक्ष में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, यह अभियान अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार और बीजेपी पर दबाव बनाने का तरीका भी है।
लेकिन रैली में दिए गए उनके कुछ बयान एनडीए के लिए असहज करने वाले साबित हुए। विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया और राहुल गांधी पर उनकी टिप्पणी ने यह संकेत दिया कि वह एनडीए की स्थापित राजनीतिक लाइन से हटकर चल रहे हैं। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग को SIR की प्रक्रिया के लिए बिहार जैसे राज्य को अधिक समय देना चाहिए था। साथ ही, यह भी माना कि वोटर अधिकार यात्रा से कांग्रेस और राहुल गांधी को फायदा हो सकता है। हालांकि उन्होंने इस यात्रा को ‘फेल’ भी बताया, लेकिन राहुल गांधी के पक्ष में यह स्वीकारोक्ति बीजेपी के लिए स्वीकार करना मुश्किल होगी।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि उपेंद्र कुशवाहा की लाइन इस समय कांग्रेस और महागठबंधन के नेताओं से मिलती-जुलती नजर आ रही है। फर्क बस इतना है कि वह खुलकर ‘वोट चोरी’ जैसी बातें नहीं कर रहे, लेकिन SIR पर उनकी राय वही है जो तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की है।
इससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या उपेंद्र कुशवाहा एनडीए के भीतर असहज हो रहे हैं और फिर से नए विकल्प की तलाश कर रहे हैं। उनका राजनीतिक इतिहास भी इस आशंका को मजबूत करता है। कभी जेडीयू में रहकर, कभी बीजेपी से गठबंधन कर और कभी तीसरा मोर्चा बनाकर, वह बार-बार पाला बदलते रहे हैं। 2024 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद वह बीजेपी के सहारे राज्यसभा पहुंचे, लेकिन अब उनके तेवर यह दिखा रहे हैं कि आने वाले दिनों में वह फिर किसी नए समीकरण की ओर बढ़ सकते हैं।
पटना रैली ने स्पष्ट कर दिया है कि उपेंद्र कुशवाहा सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे, बल्कि एनडीए में भी अपनी राजनीतिक कीमत बढ़ाने की जुगत में हैं। परिसीमन और SIR जैसे मुद्दों को उठाकर उन्होंने एक साथ जनता और केंद्र दोनों को संदेश दिया है। अब देखना यह होगा कि यह दांव उन्हें सत्ता समीकरण में कितना लाभ पहुंचाता है और क्या वह एनडीए के साथ टिके रहते हैं या फिर एक बार फिर पाला बदलने की राजनीति करते हैं।